"काले-काले बादल" और "व्याकुल चाह" - सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित "YE KALE KALE BADAL" "VYAKUL CHAH" - Subhadra Kumari Chauhan poem in hindi
"YE KALE KALE BADAL" "VYAKUL CHAH" - Subhadra Kumari Chauhan|Subhadra kumari chauhan poem in hindi|हे काले-काले बादल और व्याकुल चाह - सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित
<< हे काले-काले बादल >>
सुभद्राकुमारी चौहान >
>>कविता<<
हे काले-काले बादल, ठहरो, तुम बरस न जाना।
मेरी दुखिया आँखों से, देखो मत होड़ लगाना॥
तुम अभी-अभी आये हो, यह पल-पल बरस रही हैं।
तुम चपला के सँग खुश हो, यह व्याकुल तरस रही हैं॥
तुम गरज-गरज कर अपनी, मादकता क्यों भरते हो?
इस विधुर हृदय को मेरे, नाहक पीड़ित करते हो॥
मैं उन्हें खोजती फिरती, पागल-सी व्याकुल होती।
गिर जाते इन आँखों से, जाने कितने ही मोती॥
<< व्याकुल चाह >>
>>कविता<<
सोया था संयोग उसे
किस लिए जगाने आए हो?
क्या मेरे अधीर यौवन की
प्यास बुझाने आए हो??
रहने दो, रहने दो, फिर से
जाग उठेगा वह अनुराग।
बूँद-बूँद से बुझ न सकेगी,
जगी हुई जीवन की आग॥
झपकी-सी ले रही
निराशा के पलनों में व्याकुल चाह।
पल-पल विजन डुलाती उस पर
अकुलाए प्राणों की आह॥
रहने दो अब उसे न छेड़ो,
दया करो मेरे बेपीर!
उसे जगाकर क्यों करते हो?
नाहक मेरे प्राण अधीर॥
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